प्रस्तावना: भर्ती की घोषणा और उम्मीदों का नया दौर
राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति ने हाल ही में सह-प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों के लिए 2025 की भर्ती अधिसूचना जारी की है। आवेदन की अंतिम तिथि 30 नवंबर तय की गई है।
इस खबर ने पूरे देश के संस्कृत-शिक्षा अभ्यर्थियों में नई उम्मीदें जगा दी हैं। लेकिन इस खुशी के बीच एक बड़ा सवाल भी उभरता है
क्या यह भर्ती सच में “राष्ट्रीय” है?
क्या उत्तर भारत, विशेष रूप से बिहार-झारखंड या उत्तर-पूर्व के संस्कृत विद्वानों को समान अवसर मिल रहे हैं?
या यह भी उन नियुक्तियों में से एक है जिनका केंद्र दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों तक सीमित रह जाता है?
विश्वविद्यालय का संदर्भ: परंपरा बनाम भौगोलिक केंद्रीकरण
राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय (National Sanskrit University – NSU), तिरुपति, केंद्र सरकार के अंतर्गत आता है और संस्कृत भाषा, वेद, व्याकरण, वेदांत, ज्योतिष, योग, दर्शन और आधुनिक शिक्षा में शोध को प्रोत्साहित करने का उद्देश्य रखता है।
हालांकि, वर्षों से एक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है — संस्कृत के प्रमुख संस्थान मुख्यतः दक्षिण भारत में केंद्रित हैं।
तिरुपति, चेन्नई, बेंगलुरु, और तिरुवनंतपुरम जैसे शहर संस्कृत शिक्षा के बड़े हब बने हुए हैं।
इसके विपरीत, बिहार, झारखंड, पूर्वोत्तर राज्य (असम, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड) या यहां तक कि मध्य भारत के हिस्सों में संस्कृत विश्वविद्यालयों की कमी है।
ऐसे में यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या यह नई भर्ती इस असंतुलन को थोड़ा भी कम कर पाएगी?
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नियुक्तियों का भौगोलिक प्रभाव: कौन-कहां से लाभान्वित होगा?
भर्ती अधिसूचना में कुल एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के कई पद विभिन्न विषयों में निकाले गए हैं — जैसे संस्कृत व्याकरण, वेद, मीमांसा, धर्मशास्त्र, साहित्य, योग आदि।
इन पदों के लिए आवेदन ऑनलाइन माध्यम से पूरे भारत से लिए जा रहे हैं, परंतु अंतिम चयन में अक्सर कुछ क्षेत्रीय झुकाव देखे जाते हैं।
1. दक्षिण भारत के अभ्यर्थियों की बढ़त
- तिरुपति स्वयं विश्वविद्यालय का केंद्र है, इसलिए दक्षिण भारत के उम्मीदवारों को स्थानीय नेटवर्क, समय पर जानकारी, और दस्तावेजी प्रक्रिया की सहजता का लाभ मिलता है।
- भाषा-संबंधी फायदा भी — संस्कृत के साथ संस्कृत-आधारित दक्षिण भारतीय भाषाओं (कन्नड़, तमिल, तेलुगु) में परस्पर साम्य उन्हें बढ़त देता है।
2. बिहार-उत्तर भारत के अभ्यर्थियों की स्थिति - कई दक्षिण भारतीय उम्मीदवार पहले से विश्वविद्यालय में guest faculty या researcher के रूप में जुड़े रहते हैं, जिससे उन्हें चयन-समिति में अतिरिक्त पहचान मिल जाती है।
बिहार और पूर्वी भारत संस्कृत परंपरा के गढ़ माने जाते हैं —
नालंदा, मिथिला, वाराणसी, काशी, पाटलिपुत्र जैसे नाम भारत की संस्कृति में गूंजते हैं।
फिर भी, वहाँ के संस्कृत स्नातक सरकारी संस्थानों में चयन की दौड़ में पीछे रह जाते हैं।
कारण: आधुनिक शिक्षण-मानक (PhD Guidelines, API Score, SCOPUS Publications) तक सीमित पहुँच।
दूसरे, डिजिटल आवेदन प्रणाली और ऑनलाइन साक्षात्कार प्रक्रिया में टेक्निकल संसाधनों की कमी।
तीसरे, स्थानीय स्तर पर संस्कृत संस्थानों की कमी, जिससे शिक्षण-अनुभव (Teaching Experience) का प्रमाण जुटाना मुश्किल होता है।
3. उत्तर-पूर्व का कम प्रतिनिधित्व
असम और मणिपुर में संस्कृत कॉलेज जरूर हैं, लेकिन वहां से आवेदन करने वाले उम्मीदवारों का चयन अनुपात बेहद कम रहता है।
इसका कारण है —
- संस्कृत की पढ़ाई का सीमित प्रसार,
- केंद्र सरकार की भर्ती प्रक्रिया से दूरी,
- और आवेदन-प्रक्रिया की जटिलता।
नीति-स्तर पर कमी: राष्ट्रीय बनाम स्थानीय भर्ती
कई विशेषज्ञों का मानना है कि अगर किसी विश्वविद्यालय का नाम “राष्ट्रीय” है, तो उसे भर्ती में संतुलित क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व नीति (Regional Representation Policy) अपनानी चाहिए।
उदाहरण के लिए —
- चयन-सूची में यह देखा जाए कि उम्मीदवारों का राज्य-वार अनुपात संतुलित हो।
- विश्वविद्यालयों में “उत्तर-पूर्व प्रतिनिधित्व” या “पूर्वी भारत सेल” जैसे विभाग बनाए जाएँ, ताकि इन क्षेत्रों से प्रतिभाओं को पहचान मिल सके।
इस प्रकार की नीति न केवल भर्ती प्रक्रिया को पारदर्शी बनाएगी, बल्कि संस्कृत के राष्ट्रीय विस्तार में भी योगदान देगी।
डिजिटल डिवाइड और आवेदन-वास्तविकता
ऑनलाइन आवेदन प्रणाली ने सुविधा बढ़ाई है, लेकिन ग्रामीण या सीमांत क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए यह अभी भी एक चुनौती है।
अक्सर वेबसाइट पर server-error, payment-gateway issues और document upload failures जैसी दिक्कतें आती हैं।
बिहार, असम, त्रिपुरा जैसे राज्यों में सीमित इंटरनेट सुविधा और डिजिटल-साक्षरता की कमी के कारण कई योग्य उम्मीदवार आवेदन ही नहीं कर पाते।
यही कारण है कि आवेदन-संख्या तो “ऑल-इंडिया” दिखती है, पर चयन-परिणाम में असमानता साफ नजर आती है।
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भविष्य का संकेत: संतुलन की दिशा में सुधार की उम्मीद
अगर शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय-अनुदान आयोग (UGC) इस पैटर्न को नोट करें, तो आने वाले वर्षों में नीति-सुधार संभव है।
जैसे-जैसे NEP 2020 का पूर्ण क्रियान्वयन होता है, “संस्कृत को राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्स्थापित करने” की दिशा में कदम उठाए जा सकते हैं।
भविष्य में उम्मीद है कि —
- विश्वविद्यालय भर्ती में State Quota या Regional Quota जैसा ढांचा बने,
- उत्तर-पूर्व और बिहार जैसे क्षेत्रों में संस्कृत-केंद्रों को बढ़ाया जाए,
- और चयन-समिति में विभिन्न क्षेत्रों से संतुलित प्रतिनिधि जोड़े जाएँ।
निष्कर्ष: राष्ट्रीय दृष्टिकोण ही संस्कृत को पुनर्जीवित करेगा
राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय की 2025 भर्ती निश्चित रूप से संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा अवसर है।
लेकिन यदि यह अवसर कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित रह गया, तो यह “राष्ट्रीय” शब्द के अर्थ को अधूरा कर देगा।
संस्कृत भारत की आत्मा है — और उसकी शिक्षा का प्रसार तभी सशक्त होगा,
जब हर क्षेत्र — बिहार, उत्तर-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, केंद्र — समान रूप से प्रतिनिधित्व पाएगा।
यह समय है जब विश्वविद्यालयों को केवल भर्ती-संख्या नहीं, बल्कि भर्ती-वितरण पर भी ध्यान देना होगा।
सच्चा राष्ट्रीयकरण वही होगा जहाँ संस्कृत का ज्ञान भी सर्वत्र पहुँचे और अवसर भी।